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मानुष-तनु सम्‍मान (बसंतीदेवी-बजरंगलाल धानुका शताब्‍दी वर्ष सम्‍मान)







अपने साहित्य में ग्रामीण जन-जीवन और आम आदमी की व्यथा-कथा का चित्रण करने वाले राजस्थानी के 'प्रेमचंद` श्री बैजनाथ पंवार जीवन के 86 बसंत देखने के बाद आज भी साहित्य साधना में रत होकर सृजनधर्मियों के प्रेरणा-पुंज बने हुए हैं। यह उनका साहित्य से जुड़ाव और मायड़ भाषा के लिए अनुराग ही है, जो इस उम्र में भी उन्हें प्रदेश भर के साहित्यिक आयोजनों में बड़ी शिद्दत के साथ शिरकत करते देखा जा सकता है।
श्री बैजनाथ पंवार का जन्म चूरू जिला मुख्यालय से महज 9 किलोमीटर दक्षिण में स्थित रतननगर कस्बे में मां श्रीमती गणपती देवी और पिता श्री डूंगरमल पंवार के घर 23 जुलाई, 1924 को हुआ। सीधे-सादे किसान परिवार में जन्मे बैजनाथ का परिचय बाल्यकाल में ही ग्रामीण जन-जीवन की कठिनाइयों और आर्थिक परेशानियों से हो गया। ग्राम्य परिवेश में व्याप्त सामाजिक-आर्थिक विडंबनाओं ने उन्हें चैन से बैठने नहीं दिया और आम आदमी के लिए उनके दिल की बेचैनी व संवेदनाएं उनकी कहानियों में उभरीं। सामाजिक परिवेश को अभिव्यक्त करती अपनी कहानियों के साथ श्री बैजनाथ देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगे। सन १९५६ में प्रकाशित उनकी जागृतिपरक पुस्तक 'अकल बिना ऊंट उभाणो` खासी चर्चित और लोकप्रिय हुई। उसके बाद लाडेसर, नैणां खूंट्यो नीर, ओळखांण, जीवता जागता चितराम, गदीड़, न टूटे न झुके, नींव के पत्थर, ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया सहित राजस्थानी और हिंदी में करीब दो दर्जन पुस्तकों के प्रकाशन के बाद भी सृजन और प्रकाशन का यह सिलसिला आज भी अनवरत जारी है। दीपक, मरूवाणी, ओळमो, कुरजां, मतवाला, मरूश्री, हरावळ, जलम भोम, जागती जोत, मधुमती, बिणजारो, राजस्थली, लोक बिगुल, माणक, नैणसी जैसी तमाम पत्रिकाओं में आधी सदी से अधिक समय से लगातार छपते आ रहे श्री बैजनाथ पंवार का राजस्थानी साहित्य में योगदान अतुलनीय है। आकाशवाणी और दूरदर्शन पर उनके प्रसारणों की एक लंबी शृंखला है।
अड़तीस वर्ष की सरकारी नौकरी के दौरान छह विभागों और 11 पदों पर काम करने के बाद सेवानिवृत हुए श्री बैजनाथ पंवार वर्तमान में साहित्य सृजन के साथ-साथ साहित्यिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक और सामाजिक गतिविधियों में सियो हैं। शिक्षा और पर्यावरण सुधार के लिए पिछले सात दशकों से सतत प्रयत्नशील श्री बैजनाथ पंवार द्वारा सरकारी सेवा के दौरान इन क्षेत्रों में किए गए विशिष्ट प्रयासों की सराहना किए बिना नहीं रहा जा सकता है।
साहित्यिक और सामाजिक क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए श्री बैजनाथ पंवार के नाम के साथ सम्मान और पुरस्कारों की एक लंबी फेहरिश्त है। आप विष्णु हरि डालमिया पुरस्कार, पीथळ पुरस्कार, साहित्य सम्मान एवं पुरस्कार, सीताराम लाळस सम्मान, बृजमोहन जोशी स्मृति पुरस्कार, श्री सरस्वती सेवा पुरस्कार सहित विभिन्न सम्मान एवं पुरस्कारों से समय-समय पर सम्मानित किए जाते रहे हैं। राजस्थानी विकास मंच जालौर द्वारा डी. आर. लिट्. की मानद उपाधि से आपको विभूषित किया जा चुका है। आपके साहित्यिक योगदान को देखते हुए चूरू के नागरिकों ने 29 अप्रैल, 2001 को अमृत महोत्सव का आयोजन कर आपका अभिनंदन किया और अभिनंदन ग्रंथ भेंट किया। आपकी विशिष्ट सेवाओं के आधार पर जिला कलक्टर चूरू की ओर से आपको छह बार पुरस्कार एवं प्रशस्ति पत्र प्रदान किए गए हैं। राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी के सदस्य रह चुके श्री बैजनाथ पंवार विभिन्न पुरस्कार समितियों में निर्णायक रहे हैं।
साहित्य साधना के साथ-साथ श्री बैजनाथ पंवार की सामाजिक सरोकारों के लिए प्रतिबद्धता भी प्रेरणा देने वाली है। पूलासर में बतौर अध्यापक नौकरी के दौरान उन्होंने स्कूल भवन के निर्माण के लिए अपनी धर्मपत्नी के गहने तक गिरवी रख दिए। अध्यापकीय सेवा के दौरान जहां भी रहे, वहां भवन निर्माण के लिए विशिष्ट प्रयास किए और वृक्षारोपण के लिए चेतना जागृत की। अप्रैल, 1951 में श्री पंवार ने डूंगरगढ़ में लोक शिक्षण समिति की स्थापना की, जिसके अंतर्गत बाल भारती द्वारा छात्राओं के लिए सैकंडरी स्कूल संचालित किया जाता है। आप महाराणा प्रताप विद्यापीठ के संस्थापक एवं महेश चैरिटेबल ट्रस्‍ट के संस्थापक ट्रस्‍टी रहे हैं। वर्धमान महावीर खुला विश्वविद्यालय कोटा की राजस्थानी पाठ्यक्रम समिति के आप सदस्य हैं।
राजस्थानी भाषा के विकास और मान्यता के लिए संघर्ष में अपना समूचा जीवन लगा देने वाले रावत सारस्वत और किशोर कल्पनाकांत के साथ काम कर चुके श्री बैजनाथ उसी परंपरा के सिपाही हैं, जो आज भी अपने मोर्चे पर उसी जिजीविषा के साथ डटे हुए हैं। राजस्थानी साहित्य में उनका योगदान नई पीढ़ी के रचनाकारों के लिए मागदर्शन का कार्य कर रहा है।
ऐसे अद्भुत व्यक्तित्व के धनी सृजनधर्मी श्री बैजनाथ पंवार को 'मानस-तनु सम्मान' देते हुए हमें हर्ष, गौरव और स्वयं के सम्मान की अनुभूति हो रही है।

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